ज़िन्दगी समझो तो एक पहेली है, आसन भी है और सुलझी भी ,
पर जैसे मंजे की डोर सीधी तो है पर यदि खींचो तो उलझती ही जाती है ,
सुलझाने जाओ तो पतंग नीचे और गठानो का गुच्छा हाथ में बस !
किसी की कम किसीकी ज्यादा , किसी ने तो मंजा ही तोड़ दिया , और खेल-ए- ज़िन्दगी से इसे रुखसत हुए की लौटे ही नहीं.
किसी ने मंजा नहीं तोडा पर डोर नहीं सुलझा पाए और ज़िन्दगी में बेकार कहलाये ....
बाकियौं ने डोर भी संभाली, मंजा भी और पतंग भी , पेंच भी काटे.
हम तो दूसरों का मजा सुलझाते रहे , हमारा उल्जहता रहा , तोड़ भी न पाए , रो भी न पाए,
क्या है यार ! कुछ समझाता ही नहीं , दिमाग में क्यों इतनी गर्मी है की कुछ भी ठहरता नहीं ,
बड़े ही बे-मुरव्वत , बे अदब , बे परवाह और बेकार साबित हुए , न मांजे के, न पतंग के और न ही खेल के वाकिफ हुए , लगता है मियां हम तो बस ऐसे ही पैदा हुए, थोडा सा जिया और बाकि उम्र मर गए .
- मो. शहजाद .